हर दिन उठते ही जो करते थे मस्ती हम बचपन में,
न ख़बर हुई वो मस्ती जीवन से,न जाने कहां खो गया!
न होती थीं चिंता कल की न होती है कभी आज की,
वो दौर बचपन का यारों,बस न जाने है कहां खो गया!
दोस्तों संग मस्ती, खेल खेल में ही हो जाते जो झगड़े,
वो गली गली में घूमना बचपना न जाने कहां खो गया!
न पैसों की जरूरत, न होता कोई हिसाब किताब,
दोस्तों से मिलना और वो मस्ती न जाने कहां खो गया!
जिन नज़रों को एकटक देखने की चाहत थी प्रताप,
वो झील सी गहरी आंखों वाली, न जाने कहां खो गई!
ज़िंदगी के उलझनों से, यूं इस तरह घिर गए हम सभी,
दोस्ती और मस्ती वो अपनापन न जाने कहां खो गया!
न जाने कहां खो गया….
🖋️सूर्य प्रताप राव रेपल्ली 🙏